जीवनीपरक महाकाव्य-दयानन्ददिग्विजयम्
तुलसीदास यद्यपि रामचरितमानस की रचना स्वांत: सुखाय कर रहे थे किन्तु वह है तो जनहित में ही-
कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सबकर हित होई।।
आचार्य मम्मट कहते हैं- रामादिवत् वर्तितव्यम् न रावणादिवत् , संस्कृत साहित्य में प्रारम्भ से ही सत्पुरुषों के चरित को आधार बनाकर काव्य रचने की प्रवृत्ति रही है | स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन पर दयानन्ददिग्विजयम् नामक महाकाव्य अखिलानंद शर्मा ने लिखा है| दयानन्ददिग्विजयम् नाम से ही एक और महाकाव्य की रचना आचार्य मेधाव्रत ने की है, जो बड़ौदा से प्रकाशित है | अखिलानंद कवि के नाम से दयानंद के जीवन पर लिखे एक महाकाव्य दयानंदतिमिरभास्कर: (बुलन्दशहर) का उल्लेख प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने आधुनिकसंस्कृतसाहित्यसन्दर्भसूची में किया है, किन्तु ये वे ही अखिलानंद कवि हैं या कोई दूसरे हैं, यह कहना मुश्किल है| मेधाव्रत पंडित ने दयानंदलहरी नाम से भी एक काव्य लिखा है, जो चित्रकूट से प्रकाशित हुआ है| अस्तु,अखिलानंद शर्मा कृत दयानन्ददिग्विजयम् का परिचय ब्लॉग के लिए अरविन्द कुमार शास्त्री प्रस्तुत कर रहे हैं, जो लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘पं0 अखिलानन्द शर्मा का साहित्यिक अवदान‘ विषय पर शोधकार्यरत हैं। हम उनके आभारी हैं-
पुस्तक-दयानन्ददिग्विजयम्
विधा-महाकाव्य
रचयिता- पं0 अखिलानन्द शर्मा
सम्पादक-स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
प्रकाशक-आर्य प्रकाशन, 814 कूण्डे वालान, अजमेरी गेट, दिल्ली-1100006
प्रकाशन वर्ष- 1997
पृष्ठ-542
अंकित मूल्य-175 रु.
आधुनिक संस्कृत साहित्य में समाजसुधारक महापुरुषों के चरिताख्यानपरक काव्यों की परम्परा विस्तृत है। अनेक रचनाओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती को नायकत्वेन दर्शाया गया है। पं0 गोपालराव हरि के ‘दयानन्ददिग्विजयार्क‘(सम्प्रति अनुपलब्ध) के पश्चात् पं0 अखिलानन्द शर्मा-कृत ‘दयानन्ददिग्विजयमहाकाव्य‘ प्राचीन, प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध रचना है। इसका उपलब्ध संस्करण आर्य प्रकाशन, अजमेरी गेट दिल्ली से 1997 ई0 में प्रकाशित है। इससे पूर्व कृति अन्य प्रकाशन से भी प्रकाशित हो चुकी है। सम्पूर्ण महाकाव्य 21 सर्ग तथा 2348 पद्यों के विशाल कलेवर में विस्तृत है।
कविपरिचय-
कविवर अखिलानन्द शर्मा ने पहले आर्यसमाज तत्पश्चात् सनातनधर्म से सम्बन्धित साहित्य रचना करके संस्कृत साहित्य को सुसमृद्ध एवं गौरवान्वित किया है। कवि का जन्म गंगा नदी के सुरम्य तट पर स्थित चन्द्रनगर (चन्दूनगला) जनपद- सम्भल उ0प्र0 (भारत) में सनाढ्य ब्राह्मण कुल में वि0सं0 1937 माघ शुक्ला तृतीया को हुआ। जैसा कि स्वयं कवि ने कहा है-
ऋषिवह्निनन्दसोमैर्विरुद्धगत्या समन्विते वर्षे।
मज्जन्मचन्द्रनगरे समभून्माघेसिते तृतीयायाम्।।
(सनातनधर्मविजयमहाकाव्य 25/84)
पं0 भगीरथीलाल इनके पितामह, पं0 टीकाराम जी पिता एवं माता श्रीमती सुबुद्धि देवी थीं। कविवर शर्मा ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था से ही पद्य रचना आरम्भ कर दी थी। इन्होंने लघु-वृहद 108 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिनकी पद्य संख्या 350000 है। ये कृतियां गद्य, गीति, चम्पू, रूपक तथा लघुकाव्य आदि विधाओं में है। जिनमें अधिकांश अनुपलब्ध हैं। कवि का विपुल साहित्य शोध एवं अध्ययन की अपेक्षा रखता है। कई शोधकार्य विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्पन्न भी हो रहे है। कवि के पौत्र नरेशचन्द्र पाठक एवं प्रपौत्र अखिल पाठक पूर्ण मनोयोग से इनकी साहित्यिक विरासत का संरक्षण और प्रकाशन का सराहनीय प्रयास कर रहे हैं।
दयानन्ददिग्विजयम्-
प्रस्तुत महाकाव्य की रचना अधर्म-विध्वंसक, धर्मध्वजासंवाहक, राष्ट्रोन्नायक, शास्त्रार्थ-विजेता एवं अनुपम संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन-वृत्त को आधार बनाकर की गयी है। उनके काव्य का नायक कोई आश्रयदाता राजा या प्राचीन देवता नहीं अपितु महान् समाजसुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती हैं। जिनका यश शरत्काल के निर्मल चन्द्रमा से भी अधिक शोभित होकर जगत् में व्याप्त अन्धकार का नाश कर रहा है-
यशो यदीयं जगतीतले ततं
तमो नितान्तं तनिमानमानयत्।
शरन्मृगाटादधिकं विशोभते
विशोभितान्तः करणैरभिष्टुतम्।। 1/4
नायक के मुखारविन्द से डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त तथा ‘इवोल्यूशन-हण्टर-लेथब्रिज’ आदि थ्योरीज़ का खण्डन कराके अकाट्य युक्तियों से संस्कृत विद्या की प्रतिष्ठा सिद्ध करायी है। न्यूटन और शोपेनहाॅवर आदि द्वारा प्रदत्त सिद्धान्त ऋषियों ने पूर्व में दे दिये हैं। पदार्थविद्या यहां से अन्य देशों में चली जाने और भारतवर्ष में उसका अभाव दृष्टिगोचर होने का कारण कवि ने भारतीय लोगों की प्रयत्नशून्यता बतायी है। देश की उन्नति के लिए वेदादि शास्त्रों के अनुशीलन को आवश्यक सिद्ध किया है। कवि ने खेद व्यक्त किया है; कि विदेशी हमारे धर्म की खोज कर रहे हैं, और हम निश्चिन्त होकर सोये हैं-
महानयं शोक इहास्ति विस्तृतो
विदेशजाताः किल धम्र्ममार्गणम्।
प्रकुर्वते देशनिवासिनो जनाः
सुखेन निद्रामधिम्य शेरते।। 13/81
आलोच्य महाकाव्य मेें कवि की काव्य प्रतिभा यत्र-तत्र-सर्वत्र मुखरित हुयी है। नायक की असामयिक मृत्यु के बाद का वर्णन अत्यन्त मार्मिक है। आर्यजनों द्वारा क्रमशः ईश्वर,काल तथा देवों को उपालम्भ देना करुण रस का अनुपम निदर्शन है। कवि शोक विह्वल होकर नायक के गुणों को स्मरण करता है। हे मुनीश्वर! आपका मन्दस्मित,आपका मधुर और आपकी दयालुता कहां चली गयी। आज सरस्वती का हृदयालम्बन उसे छोड गया, मातृभूमि का जीवनाधार वह अनुपम निष्कलट-अमृत किरण अचानक ही अमावस्या में छिप गया। हिन्दी टीका में शाब्दिक क्रीडा करते हुये कहा है कि वेदमन्त्रों में एक-एक पद के ‘विनियोग’ का अलग-अलग गौरव बतलाते हुये आपने आज क्यों वियोग का स्वरूप धारण कर लिया है, आपने मन्त्रों के लिये ‘विनियोग’ बतलाया, विधवाओं के लिये ‘नियोग’ बतलाया, परन्तु हमारे लिये वियोग क्यों बतलाया? हमारे लिये अभागे ‘संयोग’ का ‘प्रयोग’ कहाँ जाकर ‘उपभोग’ पा गया? अब हम क्या ‘उद्योग’ करें? हमारा तो सारा ‘सुयोग’ दैव-‘दुर्योग’ से ‘अभियोग’ में आ गया। यह पद्य भी दर्शनीय है-
पदशः प्रतिपादयिष्यता
निगमानां विनियोग गौरवम्।
भवताद्य कथं वियोगिता
प्रतिलब्धा वद हा यतीम्र!।। 20/51
आलोच्य काव्य कवित्त्व बोधन प्रदर्शन की अपेक्षा सरलता, बोधगम्यता और भावप्रवणता को प्रश्रय दिया गया है, तथापि सहज अलंकारों का वैचित्र्य प्रशंसनीय है। कहीं-कहीं सर्वतोगमन बन्ध, षोडशदलकमल बन्ध, गोमूत्रिका बन्ध, छत्रबन्ध, हारबन्ध, चक्रबन्ध आदि चित्रालंकारों का प्रयोग भी प्राप्य है। सर्वतोगमनबन्ध में लिखे पद्य के दस अर्थ होना पाठकों को आश्चर्यान्वित करता है-
न ते न ते ते न ते न ते न ते न न ते न ते।
न ते न ये ये न ते न ते न ये न न ये न ते।। 14/190
कवि ने उपर्युक्त पद्य के दो अर्थ स्वयं हिन्दी-टीका में देकर अन्य आठ अर्थों को विद्वानों के लिये छोड दिया है।
यहां नायक की जिस प्रकार शास्त्रार्थ में सर्वत्र विजय दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार कवि को भी काव्योचित तत्त्वों के संयोजन में विजयश्री प्राप्त हुयी है। यहाँ छन्दों की अलौकिक छटा, रसों की समरसता, प्रसाद गुण की अगाधता, ओज की ओजस्विता, माधुर्य का मधुर सन्निवेश, ललित पदावली एवं अलंकारों की रमणीयता व भाव, भाषा आदि का प्रचुर सौष्ठव प्राप्त होता है।
अरविन्द कुमार शास्त्री,
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
संस्कृतविभाग, जे.एस. हिन्दू (पी.जी.) कालेज, अमरोहा, उ0प्र0
नोट- परिचय लेखक (अरविन्द कुमार शास्त्री) लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘पं0 अखिलानन्द शर्मा का साहित्यिक अवदान‘ विषय पर शोधकार्यरत हैं।
तुलसीदास यद्यपि रामचरितमानस की रचना स्वांत: सुखाय कर रहे थे किन्तु वह है तो जनहित में ही-
कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सबकर हित होई।।
आचार्य मम्मट कहते हैं- रामादिवत् वर्तितव्यम् न रावणादिवत् , संस्कृत साहित्य में प्रारम्भ से ही सत्पुरुषों के चरित को आधार बनाकर काव्य रचने की प्रवृत्ति रही है | स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन पर दयानन्ददिग्विजयम् नामक महाकाव्य अखिलानंद शर्मा ने लिखा है| दयानन्ददिग्विजयम् नाम से ही एक और महाकाव्य की रचना आचार्य मेधाव्रत ने की है, जो बड़ौदा से प्रकाशित है | अखिलानंद कवि के नाम से दयानंद के जीवन पर लिखे एक महाकाव्य दयानंदतिमिरभास्कर: (बुलन्दशहर) का उल्लेख प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी ने आधुनिकसंस्कृतसाहित्यसन्दर्भसूची में किया है, किन्तु ये वे ही अखिलानंद कवि हैं या कोई दूसरे हैं, यह कहना मुश्किल है| मेधाव्रत पंडित ने दयानंदलहरी नाम से भी एक काव्य लिखा है, जो चित्रकूट से प्रकाशित हुआ है| अस्तु,अखिलानंद शर्मा कृत दयानन्ददिग्विजयम् का परिचय ब्लॉग के लिए अरविन्द कुमार शास्त्री प्रस्तुत कर रहे हैं, जो लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘पं0 अखिलानन्द शर्मा का साहित्यिक अवदान‘ विषय पर शोधकार्यरत हैं। हम उनके आभारी हैं-
पुस्तक-दयानन्ददिग्विजयम्
विधा-महाकाव्य
रचयिता- पं0 अखिलानन्द शर्मा
सम्पादक-स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
प्रकाशक-आर्य प्रकाशन, 814 कूण्डे वालान, अजमेरी गेट, दिल्ली-1100006
प्रकाशन वर्ष- 1997
पृष्ठ-542
अंकित मूल्य-175 रु.
आधुनिक संस्कृत साहित्य में समाजसुधारक महापुरुषों के चरिताख्यानपरक काव्यों की परम्परा विस्तृत है। अनेक रचनाओं में स्वामी दयानन्द सरस्वती को नायकत्वेन दर्शाया गया है। पं0 गोपालराव हरि के ‘दयानन्ददिग्विजयार्क‘(सम्प्रति अनुपलब्ध) के पश्चात् पं0 अखिलानन्द शर्मा-कृत ‘दयानन्ददिग्विजयमहाकाव्य‘ प्राचीन, प्रामाणिक एवं प्रसिद्ध रचना है। इसका उपलब्ध संस्करण आर्य प्रकाशन, अजमेरी गेट दिल्ली से 1997 ई0 में प्रकाशित है। इससे पूर्व कृति अन्य प्रकाशन से भी प्रकाशित हो चुकी है। सम्पूर्ण महाकाव्य 21 सर्ग तथा 2348 पद्यों के विशाल कलेवर में विस्तृत है।
कविपरिचय-
कविवर अखिलानन्द शर्मा ने पहले आर्यसमाज तत्पश्चात् सनातनधर्म से सम्बन्धित साहित्य रचना करके संस्कृत साहित्य को सुसमृद्ध एवं गौरवान्वित किया है। कवि का जन्म गंगा नदी के सुरम्य तट पर स्थित चन्द्रनगर (चन्दूनगला) जनपद- सम्भल उ0प्र0 (भारत) में सनाढ्य ब्राह्मण कुल में वि0सं0 1937 माघ शुक्ला तृतीया को हुआ। जैसा कि स्वयं कवि ने कहा है-
ऋषिवह्निनन्दसोमैर्विरुद्धगत्या समन्विते वर्षे।
मज्जन्मचन्द्रनगरे समभून्माघेसिते तृतीयायाम्।।
(सनातनधर्मविजयमहाकाव्य 25/84)
पं0 भगीरथीलाल इनके पितामह, पं0 टीकाराम जी पिता एवं माता श्रीमती सुबुद्धि देवी थीं। कविवर शर्मा ने पन्द्रह वर्ष की अवस्था से ही पद्य रचना आरम्भ कर दी थी। इन्होंने लघु-वृहद 108 से अधिक ग्रन्थों का प्रणयन किया, जिनकी पद्य संख्या 350000 है। ये कृतियां गद्य, गीति, चम्पू, रूपक तथा लघुकाव्य आदि विधाओं में है। जिनमें अधिकांश अनुपलब्ध हैं। कवि का विपुल साहित्य शोध एवं अध्ययन की अपेक्षा रखता है। कई शोधकार्य विभिन्न विश्वविद्यालयों में सम्पन्न भी हो रहे है। कवि के पौत्र नरेशचन्द्र पाठक एवं प्रपौत्र अखिल पाठक पूर्ण मनोयोग से इनकी साहित्यिक विरासत का संरक्षण और प्रकाशन का सराहनीय प्रयास कर रहे हैं।
दयानन्ददिग्विजयम्-
प्रस्तुत महाकाव्य की रचना अधर्म-विध्वंसक, धर्मध्वजासंवाहक, राष्ट्रोन्नायक, शास्त्रार्थ-विजेता एवं अनुपम संन्यासी के रूप में प्रतिष्ठित स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन-वृत्त को आधार बनाकर की गयी है। उनके काव्य का नायक कोई आश्रयदाता राजा या प्राचीन देवता नहीं अपितु महान् समाजसुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती हैं। जिनका यश शरत्काल के निर्मल चन्द्रमा से भी अधिक शोभित होकर जगत् में व्याप्त अन्धकार का नाश कर रहा है-
यशो यदीयं जगतीतले ततं
तमो नितान्तं तनिमानमानयत्।
शरन्मृगाटादधिकं विशोभते
विशोभितान्तः करणैरभिष्टुतम्।। 1/4
नायक के मुखारविन्द से डार्विन के विकासवाद का सिद्धान्त तथा ‘इवोल्यूशन-हण्टर-लेथब्रिज’ आदि थ्योरीज़ का खण्डन कराके अकाट्य युक्तियों से संस्कृत विद्या की प्रतिष्ठा सिद्ध करायी है। न्यूटन और शोपेनहाॅवर आदि द्वारा प्रदत्त सिद्धान्त ऋषियों ने पूर्व में दे दिये हैं। पदार्थविद्या यहां से अन्य देशों में चली जाने और भारतवर्ष में उसका अभाव दृष्टिगोचर होने का कारण कवि ने भारतीय लोगों की प्रयत्नशून्यता बतायी है। देश की उन्नति के लिए वेदादि शास्त्रों के अनुशीलन को आवश्यक सिद्ध किया है। कवि ने खेद व्यक्त किया है; कि विदेशी हमारे धर्म की खोज कर रहे हैं, और हम निश्चिन्त होकर सोये हैं-
महानयं शोक इहास्ति विस्तृतो
विदेशजाताः किल धम्र्ममार्गणम्।
प्रकुर्वते देशनिवासिनो जनाः
सुखेन निद्रामधिम्य शेरते।। 13/81
आलोच्य महाकाव्य मेें कवि की काव्य प्रतिभा यत्र-तत्र-सर्वत्र मुखरित हुयी है। नायक की असामयिक मृत्यु के बाद का वर्णन अत्यन्त मार्मिक है। आर्यजनों द्वारा क्रमशः ईश्वर,काल तथा देवों को उपालम्भ देना करुण रस का अनुपम निदर्शन है। कवि शोक विह्वल होकर नायक के गुणों को स्मरण करता है। हे मुनीश्वर! आपका मन्दस्मित,आपका मधुर और आपकी दयालुता कहां चली गयी। आज सरस्वती का हृदयालम्बन उसे छोड गया, मातृभूमि का जीवनाधार वह अनुपम निष्कलट-अमृत किरण अचानक ही अमावस्या में छिप गया। हिन्दी टीका में शाब्दिक क्रीडा करते हुये कहा है कि वेदमन्त्रों में एक-एक पद के ‘विनियोग’ का अलग-अलग गौरव बतलाते हुये आपने आज क्यों वियोग का स्वरूप धारण कर लिया है, आपने मन्त्रों के लिये ‘विनियोग’ बतलाया, विधवाओं के लिये ‘नियोग’ बतलाया, परन्तु हमारे लिये वियोग क्यों बतलाया? हमारे लिये अभागे ‘संयोग’ का ‘प्रयोग’ कहाँ जाकर ‘उपभोग’ पा गया? अब हम क्या ‘उद्योग’ करें? हमारा तो सारा ‘सुयोग’ दैव-‘दुर्योग’ से ‘अभियोग’ में आ गया। यह पद्य भी दर्शनीय है-
पदशः प्रतिपादयिष्यता
निगमानां विनियोग गौरवम्।
भवताद्य कथं वियोगिता
प्रतिलब्धा वद हा यतीम्र!।। 20/51
आलोच्य काव्य कवित्त्व बोधन प्रदर्शन की अपेक्षा सरलता, बोधगम्यता और भावप्रवणता को प्रश्रय दिया गया है, तथापि सहज अलंकारों का वैचित्र्य प्रशंसनीय है। कहीं-कहीं सर्वतोगमन बन्ध, षोडशदलकमल बन्ध, गोमूत्रिका बन्ध, छत्रबन्ध, हारबन्ध, चक्रबन्ध आदि चित्रालंकारों का प्रयोग भी प्राप्य है। सर्वतोगमनबन्ध में लिखे पद्य के दस अर्थ होना पाठकों को आश्चर्यान्वित करता है-
न ते न ते ते न ते न ते न ते न न ते न ते।
न ते न ये ये न ते न ते न ये न न ये न ते।। 14/190
कवि ने उपर्युक्त पद्य के दो अर्थ स्वयं हिन्दी-टीका में देकर अन्य आठ अर्थों को विद्वानों के लिये छोड दिया है।
यहां नायक की जिस प्रकार शास्त्रार्थ में सर्वत्र विजय दृष्टिगोचर होती है, उसी प्रकार कवि को भी काव्योचित तत्त्वों के संयोजन में विजयश्री प्राप्त हुयी है। यहाँ छन्दों की अलौकिक छटा, रसों की समरसता, प्रसाद गुण की अगाधता, ओज की ओजस्विता, माधुर्य का मधुर सन्निवेश, ललित पदावली एवं अलंकारों की रमणीयता व भाव, भाषा आदि का प्रचुर सौष्ठव प्राप्त होता है।
अरविन्द कुमार शास्त्री,
असिस्टेंट प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
संस्कृतविभाग, जे.एस. हिन्दू (पी.जी.) कालेज, अमरोहा, उ0प्र0
नोट- परिचय लेखक (अरविन्द कुमार शास्त्री) लखनऊ विश्वविद्यालय में ‘पं0 अखिलानन्द शर्मा का साहित्यिक अवदान‘ विषय पर शोधकार्यरत हैं।
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