मूको रामगिरिर्भूत्वा - आधुनिक संस्कृत उपन्यास
कृति - मूको रामगिरिर्भूत्वा (यक्षस्य वासरिका)
विधा - उपन्यास
रचयिता - डॉ. हर्षदेव माधव
Isbn 81-86111-64-6
संस्करण - प्रथम 2008
मूल्य - 110
पृष्ठ संख्या- 198
प्रकाशक- राष्टीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली
आधुनिक संस्कृत साहित्य में यक्षस्य वासरिका (मूको रामगिरिर्भूत्वा) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। डॉ हर्षदेव माधव रचित यह उपन्यास दैनन्दिनी (डायरी) के रूप में लिखा गया है जो 165 पृष्ठों में निबद्ध है। डॉ. हर्षदेव माधव संस्कृत कविता में विशिष्ट सार्थक प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु इस उपन्यास में कवि की गद्यलीला पद्य के मनोहारी शिखरों को छू कर चलती है।
कालिदास कृत मेघदूत की कथा के अनुसार शापग्रस्त यक्ष पृथ्वी पर आता है। एक साल पृथ्वी पर रहता है। लेकिन इस एक साल में यक्ष की संवेदना या कार्य का आलेखन अप्राप्य है, जो इस उपन्यास में प्राप्त होता है। समग्र कथा चार विभागों में फैली है- श्याममेघ, अरुणमेघ, रक्तमेघ और सुवर्णमेघ।
यहां देव, असुर, प्रेत, प्राकृतिकसत्ता, मानव, पशु सब पात्र स्वरूप बन कर प्रकट हुए हैं। नायक की संवेदनाओं का निराशा से आशा और आशा से विजय तक का अभूतपूर्व आलेखन हुआ है, साथ ही नायक के पुरुषार्थ और अन्तर्द्वन्द्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी किया गया है।
यथा -
कार्तिकशुक्लद्वितीया-
अधुना नास्ति मम समीपे पृथ्वी, नास्ति अलका। त्रिशंकुवद् अन्तराले स्थितोऽस्मि। अलकां त्यक्त्वा मया न किंचिद् हारितम्, ऋते तव प्रीतेः, किन्तु अर्जितं बहु बहु। भोगपरायणे मे जीवने परमसुखं प्राप्तम्। अधुना त्वलकां गत्वा किं करिष्यामि? यत् स्वातन्त्र्यं मया प्राप्तं तत् नाशयितुं मम मनीषा नास्ति।
पुनरपि चक्रवाकचीत्कारयुक्ता रात्रिः समागताः।
नायक के पात्र से लेखक यह सन्देश देने में सफल रहे हैं कि सबसे बडा पराक्रम, सबसे बडा पुरुषार्थ है अपने मन को जीतना।
नायिका के पात्र लेखन में लेखक ने भारतीय नारी का विशिष्ट चित्रण किया है, जिससे यह कथा भारतीय संस्कृति गान की कथा बन जाती है। नायिका पार्थिवी मानवकन्या है। उसे अपना पूर्वजन्म याद है और वह यक्ष को अपने पूर्वजन्म के पति के रूप में पहचानती है। पृथ्वी पर दुःखी होकर घूम रहे यख को पार्थिवी शनैः शनैः सहारा देती है। लेकिन अपनी पहचान वह प्रकट नही होने देती। अपना परिचय वह बहुत देर बात देती है। वेदना के कारण अपाहिज जैसे यक्ष को नायिका पृथ्वी का महत्त्व, जीवन का सौन्दर्य, श्रेय और प्रेय तथा स्वतंत्रता का महत्त्व सीखाती है। यक्ष को वह सतत अप्राप्त की प्राप्ति के लिये प्रेरित करती है। फिर भी वह अपना व्यक्तित्व मुखरित नहीं होने देती जैसे भारतीय नारी। अन्त में यक्ष पृथ्वी को, पृथ्वी पर व्याप्त मानव जीवन के महत्त्व को पहचान कर अलका नगरी में नहीं जाता, पृथ्वी पर ही रह जाता है।
इस तरह प्राचीन परिवेश, प्राचीन कथानक के माध्यम से लेखक ने एक विशिष्ट कथा का निर्माण किया है।
डॉ. रीता त्रिवेदी
गुजराती, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं में कविता, कथा, समीक्षा आदि में विशेष लेखन
मोबाइल नम्बर- 9429089552
हर्षदेव माधव संस्कृत के प्रयोगधर्मी कवि हैं | उनकी कविताएं इस का प्रमाण हैं | पद्य काव्य के साथ साथ माधव जी ने नाट्य और गद्य में भी अभिनव प्रयोग किये हैं | मूको रामगिरिर्भूत्वा उपन्यास संस्कृत उपन्यास परम्परा में अनूठा है | इस उपन्यास में कालिदास के काव्य मेघदूत की कहानी को आधार बनाया गया है किंतु इसका यक्ष माधव जी का अपना यक्ष है, जो उनकी मौलिक कल्पना शक्ति से उद्भूत है | प्रो राधावल्लभ त्रिपाठी ने इसे अन्यच्छाया सौंदर्य का अनुपम उदाहरण बताया है | यह डायरी शैली में लिखा गया है , जिसमें तिथियां भारतीय मासानुसार अंकित हैं | माधव जी ने डायरी के लिए वासरिका शब्द का प्रयोग किया है, इस उपन्यास का एक नाम यक्षस्य वासरिका भी प्रचलित है | पुस्तक में डॉ मंजुलता शर्मा जी द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद भी साथ में दिया गया है, जो इसकी सहृदयसंवैद्यता में वृद्धि करता है | डॉ रीता त्रिवेदी जी इस उपन्यास का परिचय हमारे लिए प्रस्तुत कर रही हैं, एतदर्थ हम उनके आभारी हैं | वस्तुतः उन्होंने इस उपन्यास में निहित नारी विमर्श को बहुत सूक्ष्मता से स्पर्श करते हुए रेखांकित किया है |
कृति - मूको रामगिरिर्भूत्वा (यक्षस्य वासरिका)
विधा - उपन्यास
रचयिता - डॉ. हर्षदेव माधव
Isbn 81-86111-64-6
संस्करण - प्रथम 2008
मूल्य - 110
पृष्ठ संख्या- 198
प्रकाशक- राष्टीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली
आधुनिक संस्कृत साहित्य में यक्षस्य वासरिका (मूको रामगिरिर्भूत्वा) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। डॉ हर्षदेव माधव रचित यह उपन्यास दैनन्दिनी (डायरी) के रूप में लिखा गया है जो 165 पृष्ठों में निबद्ध है। डॉ. हर्षदेव माधव संस्कृत कविता में विशिष्ट सार्थक प्रयोगों के लिए प्रसिद्ध है, किन्तु इस उपन्यास में कवि की गद्यलीला पद्य के मनोहारी शिखरों को छू कर चलती है।
कालिदास कृत मेघदूत की कथा के अनुसार शापग्रस्त यक्ष पृथ्वी पर आता है। एक साल पृथ्वी पर रहता है। लेकिन इस एक साल में यक्ष की संवेदना या कार्य का आलेखन अप्राप्य है, जो इस उपन्यास में प्राप्त होता है। समग्र कथा चार विभागों में फैली है- श्याममेघ, अरुणमेघ, रक्तमेघ और सुवर्णमेघ।
यहां देव, असुर, प्रेत, प्राकृतिकसत्ता, मानव, पशु सब पात्र स्वरूप बन कर प्रकट हुए हैं। नायक की संवेदनाओं का निराशा से आशा और आशा से विजय तक का अभूतपूर्व आलेखन हुआ है, साथ ही नायक के पुरुषार्थ और अन्तर्द्वन्द्व का मनोवैज्ञानिक चित्रण भी किया गया है।
यथा -
कार्तिकशुक्लद्वितीया-
अधुना नास्ति मम समीपे पृथ्वी, नास्ति अलका। त्रिशंकुवद् अन्तराले स्थितोऽस्मि। अलकां त्यक्त्वा मया न किंचिद् हारितम्, ऋते तव प्रीतेः, किन्तु अर्जितं बहु बहु। भोगपरायणे मे जीवने परमसुखं प्राप्तम्। अधुना त्वलकां गत्वा किं करिष्यामि? यत् स्वातन्त्र्यं मया प्राप्तं तत् नाशयितुं मम मनीषा नास्ति।
पुनरपि चक्रवाकचीत्कारयुक्ता रात्रिः समागताः।
नायक के पात्र से लेखक यह सन्देश देने में सफल रहे हैं कि सबसे बडा पराक्रम, सबसे बडा पुरुषार्थ है अपने मन को जीतना।
नायिका के पात्र लेखन में लेखक ने भारतीय नारी का विशिष्ट चित्रण किया है, जिससे यह कथा भारतीय संस्कृति गान की कथा बन जाती है। नायिका पार्थिवी मानवकन्या है। उसे अपना पूर्वजन्म याद है और वह यक्ष को अपने पूर्वजन्म के पति के रूप में पहचानती है। पृथ्वी पर दुःखी होकर घूम रहे यख को पार्थिवी शनैः शनैः सहारा देती है। लेकिन अपनी पहचान वह प्रकट नही होने देती। अपना परिचय वह बहुत देर बात देती है। वेदना के कारण अपाहिज जैसे यक्ष को नायिका पृथ्वी का महत्त्व, जीवन का सौन्दर्य, श्रेय और प्रेय तथा स्वतंत्रता का महत्त्व सीखाती है। यक्ष को वह सतत अप्राप्त की प्राप्ति के लिये प्रेरित करती है। फिर भी वह अपना व्यक्तित्व मुखरित नहीं होने देती जैसे भारतीय नारी। अन्त में यक्ष पृथ्वी को, पृथ्वी पर व्याप्त मानव जीवन के महत्त्व को पहचान कर अलका नगरी में नहीं जाता, पृथ्वी पर ही रह जाता है।
इस तरह प्राचीन परिवेश, प्राचीन कथानक के माध्यम से लेखक ने एक विशिष्ट कथा का निर्माण किया है।
डॉ. रीता त्रिवेदी
गुजराती, संस्कृत, हिन्दी भाषाओं में कविता, कथा, समीक्षा आदि में विशेष लेखन
मोबाइल नम्बर- 9429089552
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